कलियुग और सतयुग तो हमारे स्वभाव में बसता है



हरिओम शास्त्री
आजकल जब भी हत्या या बलात्कार जैसी कोई बुरी खबर मिलती है, लोग कहते हैं, भाई कलियुग है। इसमें तो यही सब होना है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-ये चारों ब्रह्मा जी के ही पुत्र हैं।  

कथा है कि एक बार ब्रह्मा ने अपने इन चारों पुत्रों को बुलाकर उनकी कुशल क्षेम पूछी। तब सतयुग, त्रेता और द्वापर ने कहा, हे पिता, बाकी सब कुछ तो ठीक है, पर यह कलियुग बड़ा पापी और घोर अन्यायी है। इसकी व्यवस्था में आते ही हमारे सारे शुभ कर्म समाप्त हो जाते हैं।

तब कलियुग ने कहा, हे पिता, आप इनकी बातों पर ध्यान न दें। जो ये कह रहे हैं, स्थिति उससे उलटी है। इसी सतयुग की व्यवस्था में हिरण्यकश्यपु का शासन चला, महाराज हरिश्चंद्र ने इतना कष्ट सहन किया, उनके प्रति सतयुग ने क्या न्याय किया? अंतत: इस सतयुग की व्यवस्था को ठीक करने के लिए भगवान को नरसिंह अवतार लेना पड़ा। 


आप त्रेता की बात तो पूछिए ही नहीं, इसकी शासन व्यवस्था को ठीक करने के लिए परशुराम को अधर्मी राजाओं को 21 बार दंड देना पड़ा और रावण का अत्याचार मिटाने के लिए खुद राम को अवतरित होना पड़ा। और ये द्वापर महाराज जो बैठे हैं, इनकी तो बात ही क्या कहूं, इनका तो संपूर्ण काल ही षडयंत्रों से भरा पड़ा है। जब धर्म और न्याय की मूर्ति विदुर और युधिष्ठिर जैसे लोगों का पूरा जीवन राजनीति और धर्म के दुष्चक्रों को सुलझाने में बीता। पांडवों को दासों का सा जीवन बिताना पड़ा। भरी सभा में नारी के वस्त्र हरण का आदेश दिया गया और ज्ञानी मौन बैठे रहे। यदि भगवान कृष्ण का अवतार न होता, तो उस कपट और कुटिल राजनीति को काट पाना संभव न था।



फिर कलियुग ने कहा, लेकिन हे पिता, मेरे यहां भगवान को अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है।यहां मनुष्य ही स्थितियों में परिवर्तन कर सकता है।
कलियुग की इस बात का मर्म समझने के लिए हमें सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-चारों का धर्म समझना होगा। सभी युगों के धर्म नित्य हैं, यानी वे मनुष्य की वृत्तियों में सदा मौजूद हैं। उसके हृदय में जो सतोगुण है, वह सतयुग का धर्म या प्रभाव है। सतोगुण की अधिकता हो, कुछ रजोगुण भी हो, कर्मों में प्रीति हो और जीवन सुखी हो, इस व्यवस्था का नाम त्रेता है।रजोगुण की प्रधानता हो, थोड़ा सतोगुण और तमोगुण भी हो, पर मन में भय, विषाद और आशंका भरा हो, तो समझो, वही द्वापर है।और तामस की प्रधानता हो, कार्य में रुचि हो, पर रजोगुणका अभाव हो, चारों ओर विरोध हो, तो समझो कलियुग का प्रभाव है।

कलियुग में सारे काम कपट और कुटिलता से किए जाते हैं। वह हमारी मनोवृत्ति का दोष है। युग का कोई दोष नहीं है। अप्सराएं तो पहले भी थीं, जो देवताओं का मनोरंजन करती थीं।सोमरस पहले भी उपलब्ध था, उसकी चर्चा वेदों में भी है।लेकिन उस समय आत्मरंजन करने वाले ऋषियों की परंपरा मजबूत थी।वे समाज को दिशा देते थे।स्वामी, उपदेशकऔरकथावाचकआजभीहैं, पर वे फिल्मी गीतों की तर्ज पर भजन गाते हैं ।

आज कलियुग में प्राचीनकाल की तरह स्त्रियों को सरे आम नग्न करने के आदेश नहीं दिए जाते।प्राचीनकाल की तरह दास प्रथा नहीं है।मजदूरों और गरीबों के कल्याण के लिए अनेक कानून बनाए जा रहे हैं।कलियुग है पर इस व्यवस्था में राजा सर्वोपरि नहीं है।जनता जनार्दन है, अपने अधिकारों का प्रयोग वह सीख रही है।अब प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य का अपना विकास हो रहा है।


सतयुग और त्रेतायुग में हजारों वर्ष तप करने पर परिणाम सामने आता था, लेकिन कलियुग में निर्णय तत्काल होते हैं। केवल आवश्यकता है विश्वास की और अपने स्वभाव को बदलने की।शास्त्रों के अनुसार इस कलियुग में राम और कृष्ण अवतरित नहीं होंगे, हम लोग ही इसकी व्यवस्था बदलेंगे।जैसे प्राचीन ऋषियों की अपेक्षा गांधी का तप बहुत कम था, लेकिन पूरे देश की जनता उनके साथ खड़ी हुई थी।

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